उस अजन्मी बच्ची के हत्या की
सारी साजिशें गढ़ी जा चुकी थी
पराध्वनिक चित्रण की पुर्जी में
लिंग पता लगते ही
उस बेचारी, बेजुवान, अपूर्ण
और निराकार बच्ची की गलती
बस इतनी थी
कि वह लड़की जन्मती
घर के सारे सदस्य
इतने खुश थे, मानो
कोई महोत्सव हो रहा हो
आज उनके घर
बूढ़ी, कुबड़ी अम्मा भी
नई साड़ी पहन
पहुँच चुकी थी अस्पताल
कत्ल के इस महोत्सव में शरीक होने
जहाँ बिकते थे रोज
चिकित्सक, नर्स
और प्रशासन
चंद नोटों पर
अंदर छुरी, चाकू,
रुई और पट्टियाँ
सब के सब तैयार थे
हत्या को अंजाम देने के लिए
सिर्फ खामोश थीं
अजन्मी बच्ची की
बेवश, बेसहारा, लाचार
और अवाक्, उसकी माँ
जो हो चुकी थी- विक्षिप्त
इस महोत्सव की चकाचौंध में