यह जो ब्रह्मराक्षस है मेरे भीतर एक
इसके आस-पास ही तो घुमती है मेरी प्रज्ञा
क्या छुपा है इसमें
सवेरे का सूरज?
पक्षियों का संगीत?
मनुष्यों की अभीप्सा ?
या नारायण की मर्जी?
जो भी हो यह ब्रह्मराक्षस ही है मेरी नियति
सोचता हूँ जब ब्रह्म ने रचा होगा इसे
तब जरा भी शंका नहीं हुई उसे इस पर!
कितनों को ही यह अपने नागपाश में बांधकर
नचा रहा है उन्हें अपने फन पर।
ढूंढता हुआ अपने समय का सौंदर्य महान
हाय! मैं भी हुआ मुग्ध इस पर।
जो कि मिल ही जाता है फिर कहीं आस-पास
घूमता-फिरता, उठता-बैठता, जागता-सोता
करता अकेला ही हतप्रभ अपने करतब से
मेरी आत्मा में बन जाता है प्रश्न कोई नया
मैं हो जाता हूँ मूक
करता हूँ प्रतीक्षा लम्बी
इसके फिर से आविष्कृत होने की।