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अट्टहास / स्मिता सिन्हा

वह एक अट्टहास है
उस भीड़ का
जहाँ उसके लिये
सिर्फ़ वितृष्णा होनी चाहिये
वह गिद्धों की गरदन
मरोड़कर बैठा है
बेखौफ
जबकि छिपकलियाँ
छटपटा रही हैं
उसकी मुट्ठीयों में
उसने नोंचने शुरु कर दिये हैं
सारसों के पर
हाँ उनकी खरोंचें
अभी तुमपर बाकी हैं
तुम बस यूँ ही
खींसे निपोरकर
बैठे रहना चुपचाप

मुझे बड़ा ताज्जुब होता है तुमपर
तुम्हारी नज़रों के सामने
वह लगातार बोता जा रहा है
झूठ पर झूठ
और तुम बड़ी ही
तल्लीनता से चढ़ाये जा रहे हो
उसके झूठों पर
सच की कलई
अभी जबकि
तुम्हारा संघर्ष
सिर्फ़ तुम्हारे हिस्से की
अंधेरे के खिलाफ होना था
तुम व्यस्त हो
उसके दिये हुए
तमाम अंधेरों को समेटने में

मैं क्या जिरह करूँ तुमसे
कि सबकुछ
जानते समझते हुए भी
तुम रोज़ गढ़ रहे हो
उसके पक्ष में
नये नये धारदार तर्कों को
जबकि वो खुद ही
अपने विरुद्ध
एक सशक्त बयान है...