अतीत / शैलेन्द्र चौहान

इतने डरावने भी नहीं थे
सब दिन
ललमुनिया नाचती थी
पहन कर लाल लहंगा,
लाल चूनर

चिडि़या सी फुदकती
लचकती बेल सी
बच्ची सी चहकती
जवान ललमुनिया
(किशोरी भी हो सकती है)
मजा ला देती

किसी ने उसका
हाथ नहीं पकड़ा
पैसे नहीं फैंके
किसी ने नहीं कहा
’हाय मेरी जान !’
नहीं कहा किसीने रात रुकने को

उल्टे भूरे काका ने
सर पर हाथ रखकर
ढेरों आशीर्वाद दिए
बहू की एक धोती दी
डेढ़ मन अनाज दिया

कसे हुए जवान,पट्ठे बैलों को
छकड़े में जोतकर
चारों तरफ कपड़ा लगा
बेटी की तरह ललमुनिया को
बिदा किया
ललमुनिया की आँख से
बह निकला समुँदर

दो बूँदें उँगली से झटक
काका ने लगाई
एड़ बैलों को

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