तुम्हे याद हो, ना हो
जब हम पहली बार मिले थे
जोरों की बारिश आई थी
गुलमोहर के फूल खिले थे
अजनबी मैं भी नही थी
अपरिचित तुम ही कहाँ थे
पिछले जनम का रिश्ता था
अब जाकर मिले यहाँ थे
तुमसे मिलने मेरा जाना
डेग लंबे, छोटी गलियाँ
तुम्हे लेकर फिर घर को आना
डेग छोटे, लंबी गलियाँ
मेरा महरूनी दुपट्टा
सिर पर जब तुम लहराते थे
कोई जाने तो, जल जाएगा
बस इतना ही कह पाते थे
बातों बातों में वक़्त बीत गया
ग्रीष्म, वर्षा और शीत गया
दुनियादारी की जंग में
दिमाग़, दिल से जीत गया
आज मैने अलग दुनिया बसाई है
तुम्हारा भी अपना एक जहाँ है
सपनो में ही मिल लेती हूँ
क्यों की मेरा अतीत वहाँ है
“मालूम” है!, तुम आजकल आते हो
यहाँ, “इस खिड़की” से झाँकते हो
पर नही लहरा पाते हो मेरे सिर पर
वो महरूनी दुपट्टा, जिसे मैने आज भी
तुम्हारी यादों में सहेज कर रखा है
सकुचाते हो मेरी तारीफ़ करने में
दुनियादारी कुछ यूँ चखा है
तन के जख्म पर मरहम तो लगा लिया
मन के घाव की कोई दवा नहीं
काश तुम्हारे साथ बिताए हुए
वो खूबशुरत पल!! वहीं ठहर जाते
रात मे गाते झींगुरों के राग सा
जिसमे केवल स्थाई है; कोई अंतरा नही