जेठ की सन्ध्या के अवसाद-भरे धूमिल नभ का उर चीर
ज्योति की युगल-किरण-सम काँप कौंध कर चले गये दो कीर।
भंग कर वह नीरव निर्वेद, सुन पड़ी मुझे एक ही बार,
काल को करती-सी ललकार, विहग-युग की संयुक्त पुकार!
कीर दो, किन्तु एक था गान; एक गति, यद्यपि दो थे प्राण।
झड़ गये थे आवरण ससीम शक्तिमय इतना था आह्वान!
गये वे, खड़ा ठगा-सा मैं शून्य में रहा ताकता, दूर
कहीं से पा कर निर्मम चोट हुआ माया का शीशा चूर।
प्राण, तुम चली गयीं अत्यन्त कारुणिक, मिथ्या है यह मोह-
देख कर वे दो उड़ते कीर कर उठा अन्तस्तल विद्रोह!
व्यक्ति मेरा इह-बन्धन-मुक्त उड़ चला अप्रतिरुद्ध, अबाध,
स्वयं-चालित थे मेरे पंख-और तुम-तुम थीं मेरे साथ!
मुझे बाँधे है यह अस्तित्व मूक तुम, किस पर्दे के पार
किन्तु खा कर आस्था की चोट-खुल गये बन्दी-गृह के द्वार!
यही है मिलन-मार्ग का सेतु हृदय की यह स्मृति-प्यार-पुकार-
इसी में, रह कर भी विच्छिन्न हमारा है अनन्त अभिसार!
लाहौर, 17 मई, 1935