अतुल रूप-सौन्दर्य तुम्हारा, अनुपम सर्वविलक्षण रूप।
अतुल परम ऐश्वर्यरूप तुम, तव-महव असीम अनूप॥
नहीं प्राप्त करना कुछ तुमको, है र्काव्य नहीं कुछ शेष।
निज महिमा में तृप्त सर्वदा, नहीं कहीं अतृप्ति लवलेश॥
जीव मात्र के तुम्हीं आत्मा, करते सब तुममें हैं प्रीति।
तुम्हीं सभी के एकमात्र हो, आश्रय, यही सनातन नीति॥
फिर तुम मुझ नगण्य दीना में, क्यों इतने रहते आसक्त?
क्यों निज महिमा भूल, बन रहे मुझ मलिना के इतने भक्त?
दोषमयी मैं नित्य, नहीं कोई भी, मुझमें गुण निर्दोष।
क्यों तुम रीझ रहे हो मुझपर, देख न पाते कुछ भी दोष?