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अथ मार्शा-स्टीफ़न प्रेमकथा / शुभम श्री

वर्षों गुलमोहर तोड़ता रहा स्टीफ़न
रक्ताभ शिखाओं पर क़दमताल करता
प्रार्थना करती रही मार्शा जोड़ा फूल की
डलिया भर गुलमोहर थे
कहाँ था उसका जोड़ा फूल ?
पर उस बरस जो गुलमोहर फूला
जगा स्टीफ़न का कवि-हृदय
गालों पर खिले गुलमोहर
हथेली में कुम्हलाया जोड़ा फूल
मार्शा ने वसन्त का रूप धरा
थरथराने लगी हवाएँ
काँपने लगा स्टीफ़न
...
नाचते-नाचते ताल टूट जाती है
बीड़ी में भी राख ही राख
राँची जाएगी बस !
उसे ढोल उठाने भी नहीं ले जाएगा कोई
भार से झुके शरीफ़ों का रस टपकता है
कोए तालू से चिपकते हैं
मिठास नहीं रुचती
कच्चे अमरूद की खोज में भटक रहा है स्टीफ़न
...
कास का जंगल राँची नहीं जाता
जाती है बस
टका लगता है
इसू को अढ़हुल गछना सफल हुआ
उन्हें सामान ढोने वाला चाहिए !
...
बस की सीट गुद-गुद करती है
नशा लगता है, नींद भी
नहीं, मार्शा ही बैठेगी सीट पर
स्टीफ़न खड़ा रहेगा
रह-रहकर महुआ किलकता है
बेहोशी टूटती नहीं
खिड़की के पास मार्शा
उसके बगल में स्टीफ़न
खड़ा पसिंजर देह पर लदता है न इसलिए
उल्टी करने में भी दिक़्क़त नहीं होगी
मार्शा का मन घूमेगा तो
वो जेब में इमली का बिया रख लेगा
नहीं नहीं,
ये वाला सपना नहीं
वही उल्टी करेगा खिड़की से
मार्शा की देह से सटकर
तब भी पीठ नहीं सहलाएगी ?
उंह, सपने में भी लाज लगती है
...
सरदार कुड़कुड़ाता है
छूटते ही हँसी-ठट्ठा
नम्बरी छिनाल है सब
मार्शा को रह-रहकर पेट में करेंट लगता है
झालमुढ़ी खाया नहीं जाता
स्टीफ़न ठोंगा ले लेता है
इतनी मिर्ची में ही बस !
चः चः
बस निश्चल खड़ी है
स्टीफ़न का दिल दहलता है
मार्शा की आँख
...
लेडिस भीतर
जेंस छत पर
यह कैसा नियम ?
स्टीफ़न जेंस है कि लेडिस
मार्शा दुविधा में है
सरदार ही जाने
...
ढोल कस कर पकड़ने पर भी डर लगता है
जरकिंग से पेट दुखाता है
लगता है ढोल समेट खड्डे में गिर पड़ेगा
छत तप रही है
स्टीफ़न के पिघलते हुए हृदय में
सीट पर बैठने की इच्छा कसकती है
पहले धीरे-धीरे, फिर तेज़
...
अनजान रास्तों पर
सिर्फ पेड़ पहचान में आते हैं
आदमी एक भी नहीं
ठसाठस भरी बस में
स्टूल पर मार्शा नहीं
घर नजर आता है स्टीफ़न को
ताड़ के पंखे की फर-फर हवा
उसके पसीने की गन्ध जाने कैसी तो लगती है ।
...
बस की फ़र्श फर बैठा हवा खाता स्टीफ़न
उसकी नाक पर लाली है, मार्शा के गालों पर
लड़कियों के दल का अट्टहास
मधुर है
छत की मार से
यहाँ का करुणा मिश्रित उपहास
...
यह तो किसी स्वप्न में नहीं देखा था
कि हतदर्प योद्धा की तरह यात्रा करनी होगी
माथा घूमता है, जी मिचलाता है
यह तो मार्शा को होना था
उसे क्यों हुआ
जेंस बनने में कहाँ चूक हुई ?
मन होता है मार्शा के हाथ से पंखा फेंक दे
और
फूट-फूट कर रोए उसकी गोद में
सरदार ने बहुत कस कर माराSS
...
उसने गुलमोहर का सबसे सुन्दर फूल तोड़ा
सबसे सुरीली बाँसुरी बजाई
सबसे अच्छा शिकार किया
सबसे तेज़ नाचा
फिर भी वो चली गई
भाई-बहनों का पेट मोरपंख से नहीं भरता
स्टीफ़न नहीं जान पाया
मार्शा जानती थी
...
बेर डूबी
कोरे घड़े की तरह डूब गया उसका दिल
छाती में दर्द होता है
आँखों में चुनचुनाहट
जाने हवा-बयार लगी कि मन्तर का बान
देह में ताप है कि मन में
पंखा होंकने से मन और घूमता है
जीवन की सारी उपलब्धियां व्यर्थ हैं
उसकी जीत, उसका मान, उसकी कला
एक थरिया भात तक नहीं कमा सका
हर बार हारा है स्टीफ़न
...
लड़कियां चली गईं
जंगल उदास हुए, घर बंजर
एकाएक टूटा आकर्षण का तिलिस्म
दिन-रात लुका-छिपी खेलता वसन्त
सूखे पत्तों-सा दरक गया
पहले बच्चों की चहचहाहट को पाला लगा
फिर
चेहरों पर
गरमी की अन्तहीन दोपहर पसर गई
...
मन नहीं लगता
चाँद का निकलना
रात की सूचना है
और सूर्योदय
मैदान जाने की वेला भर
जंगलों को नमी
और
स्टीफ़न के कवि-हृदय को नौकरी की तलाश है !
...
मार्शा के घर पर खपड़े लगे
लिपे हुए आँगन में
उसकी हथेलियों की छाप धुँधला गई
चिकनी दीवारों से मिट गए सदा-सुहागिन के फूल
अब वहाँ
सीतको साबुन का विज्ञापन है
...
स्टीफ़न खपड़े तोड़ देना चाहता है
चाँदी की हँसुली भी
जो मार्शा की माँ ने पहना है
लेकिन हर बार
कटोरे में माड़-भात खाता टुडू दिख जाता है
हड्डियों पर माँस चढ़ रहा है
स्टीफ़न पर बुखार
...
एक एक कर लौट रही हैं लड़कियाँ
माएँ जड़ हैं, पिता मौन
पैसे मुर्दा पड़े हैं
सुरमी गिन रही है
सरदार ने अठारह बार
ईंट-भट्टे वाले ने तीन महीने
दिल्ली में साल भर
मृत्युशोक में डूबे हैं घर, जंगल, पहाड़
...
हर पर्व में लौटता है स्टीफ़न
समन्दर पार से पंछी लौटते है
रेल, बस, मौसम, फूल, हवा, बरसात
सब लौटते हैं
सिवाय मार्शा के
...
कोई नहीं जानता
सुना है उधर भाड़े पर बच्चा पैदा करने का काम चलता है
बिदेस सप्लाई भी
कौन जाने सादी-ब्याह ही...
कोई नहीं जानता
मार्शा का पता
स्टीफ़न का भाग्य ।