Last modified on 17 अप्रैल 2011, at 05:21

अदृश्य ज़ख़्म / विमल कुमार

पूरी दुनिया देखती है
जब एक पुल टूटता है
फोटोग्राफ़र खींचते हैं
उसकी तस्वीरें
अख़बारों में वह
छपता भी है ।

एक मकान भी ढहता है
तो पूरा मुहल्ला देखता है ।

एक फूल भी टूटता है,
एक पत्ता भी गिरता है
तो वह दिखाई देता है
पार्क में सबको

छिप नहीं सकतीं
ये घटनाएँ छिपाने पर भी
जब टूटते हैं रिश्ते
तो दिखाई भी नहीं देता
पूरी दुनिया को
आवाज़ भी नहीं होती
और घर में भी पता नहीं चलता
मालूम होता है केवल उन्हें
जिनके बीच में है ये रिश्ते

कई लोग तो
छिपा लेते हैं
अपने भीतर
ज़ख़्मों की तरह
अपने सीने में
उसे
पर टूटे हुए पुल को नहीं
छिपाया जा सकता
नहीं छिपाया जा सकता
ढह गये मकान को

कई बार साथ-साथ
बैठे रहते हैं दो जन
और किसी तीसरे को
पता भी नहीं चलता
दरक गये हैं कितने
दोनों के बीच
ख़ूबसूरत रिश्ते ?

सच तो यह है
कि दरक गए रिश्तों की
कोई तस्वीर नहीं
खींची जा सकती
कभी किसी कैमरे से

भीतर ही भीतर
टीस रहे हैं ज़ख़्म की तरह
टूटे हुए रिश्तों के पीछे
छिपा था कितना प्रेम
इसका तो कभी
पता ही नहीं चलता ?