हत-चेतन संज्ञाएँ,
केवल
उपसर्ग बदलते हैं !
‘निर्वाचन’ की
परम्परा ने
थक कर दम तोड़ा
लोकतन्त्र की
छिली पीठ पर
अधिनायक कोड़ा
अक्षत-अक्षर वर्णों के
कब वर्ग बदलते हैं ?
वैध-अवैध
समासों ने कुछ
ऐसे कसे शिकँजे
जन की छाती
चढ़ी सँधियाँ
नोच रहे तन पँजे
वही व्याकरण
काशी का , कब–
गुलमर्ग बदलते हैं ?