तुम्हारे दर्शन की आशा
हृदय में जब तक कुछ भी शेष!
हमारी आँखें बैठी हैं
अधीरा बन करके अनिमेष।
पुतलियों का आसन है डाला
छिपाकर रक्खी मुक्ता माला,
खुले दरवाजे पलकों के
पधारोगे कब हे प्राणेश!
दृष्टि चपला सी चंचल भारी
क्षितिज पर अटकी जाकर न्यारी
मार्ग में अणु भी पर्वत हो
विकल करता उसका उर देश!
सुदर्शन होंगे जब उस श्री के
सहस्त्रों चन्द्र पड़ेंगे फीके
भव्य क्या ही हाँ, बोलो तो
न होगा वह मन मोहन वेश!
-श्री शारदा, फरवरी, 1921