आज भी वे चित्र आँखों में बसे हैं
हम कभी जिनको अधूरा छोड़ आए ।
यक्षदूतों से घिरी वह सान्ध्य बेला
आज भी मन में कहीं ठहरी हुई है
दीप रखकर हाथ में पथ जोहती-सी
एक छाया और भी गहरी हुई है
लौट आए साँझ का भूगोल लेकर
रात का इतिहास पूरा छोड़ आए ।
कापियों पर उँगलियों के पोर छूते
कम्पनों के सिलसिले हैं याद अब भी
मेज़ पर रक्खी किताबों को उलटते
ढह गए कितने किले हैं याद अब भी
है हमें अफ़सोस क्यों, उस मेज़ पर हम
मौन मीरा और सूरा छोड़ आए ।
आज भी सपनों जड़ी जयमाल पहने
एक जोड़ी मंच पर सजकर खड़ी है
झर रहे हैं फूल, आंसू ढल रहे हैं
रूढ़ियों की हथकड़ी कितनी कड़ी है
था बहुत विश्वास जिनकी सत्यता पर
वह कलश, मन्दिर, कँगूरा छोड़ आए ।