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अधूरे प्रेम की बाँसुरी / स्वप्निल श्रीवास्तव

बहुत सुरीली होती है
अधूरे प्रेम की बाँसुरी की
आवाज़

इसे बजाना सबके बस की
बात नहीं है
साँसों के उतार –चढ़ाव पर
करना पड़ता है नियंत्रण

उँगुलियों को करना पड़ता है
पारंगत
कि कैसे बाँसुरी की देह को
छूकर उसे जीवन्त किया
जा सके

यह प्रेम की कठिन साधना है
अतः जो इस पथ के
पथिक नही हैं – उनके लिए
इस पंथ में नही है जगह
जीवन –यापन के लिये संगीत
का धन्धा ही ठीक है
  
अकेलेपन की घनी बारिश में
बेआवाज़ बजती है यह बाँसुरी
और हिज्र का सुख देती है