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अनकहल अनबुझल / मन्त्रेश्वर झा

बहुत किछु कहलहुँ
कविता, कथा, नाटक, व्यंग्य
किछु अकस्मात्, किछु अपस्याँत।
बहुत किछु सहलहुँ
अपमान, क्रोध, प्रशंसा, घृणा
निन्दा, चापलूसी, नम्रता।
डगर डगर घुमलहुँ
चिखलहुँ, पीलहुँ, जीलहुँ मरलहुँ।
की वैह सभ छिऐक-
कर्मभूमिक पास्य कर्मकाण्डक भाष्य?
संबंध बनल, बिगड़ल
करैत रहलहुँ आडम्बरक नकल,
जाइत रहलहुँ ठकल।
हे हमर परमपिता
आर की की बाँकी अछि
आ कि केवल दोहराबैत
रहि जायब सभ दिन वैह
जहिना दोहराबैत अछि प्रकृति
सूर्य, चन्द्र, तारा उदधिक ज्वार भाटा
नव नव पल्लव बनब झरब
नव पुरान बनब, खसब उठब
अहूँके हमरे जकाँ जे किछु कहबाक अछि
से किएक ने कहि पबैत छी
हे हमर परमपिता
जे रहि जाइत छी
अनकहल, अनबुझल।