अभिव्यक्त न हो सका दर्द जो
कैसे कहूँ मन में नहीं था वो
अभिव्यक्ति की भी अपनी सीमाएं हैं।
कभी युधिष्ठिर है तो कभी दुर्योधन
इच्छाओं का कुरुक्षेत्र है ये मन
जो महाभारत है अपने आप से
मैं सम्बद्ध हूँ उस वार्तालाप से
काँच का हृदय है, पत्थर की शिलाएं हैं।
अभिव्यक्ति की भी अपनी सीमाएं हैं।
कच-प्रण है, कभी देवयानी हठ है
ये पागल मन जाने कैसा मठ है
आँसू पीता है दर्द जीता है
हृदय भावों की भागवतगीता है
कृष्ण-समाधान, पार्थ शंकाएं हैं।
अभिव्यक्ति की भी अपनी सीमाएं हैं।
जब कभी मैं अतिशय दर्द ढोता हूँ
सच मानिए व्यक्त नहीं होता हूँ
सर्वदा बस औरों को बाँटी हैं
मैंने जब भी मुस्कानें छाँटी हैं
एक हनुमन्त हैं, सैंकड़ों सुरसाएं हैं।
अभिव्यक्ति की भी अपनी सीमाएं हैं।