प्रेम को सदा प्रथम चुंबन-सा अनगढ़
होना चाहिए
जैसे कि प्रेयसी ने होठों को मात्र स्पर्श किया
और स्वाद प्रेमी के जीवन में उतर आए।
प्रेम होना चाहिए
खाने के उस निवाले सा
जो काफ़ी समय के उपवास के पश्चात
हलक में गया हो।
प्रेम की परिधि के भीतर
कोई केंद्र बिंदु ना हो
जहाँ से बंधी रहे प्रेमियों की उड़ान
समूचा आकाश हो प्रेम का वितान।
प्रेम सम्पूर्ण ना हो पर खुला रहे वह रास्ता
जिससे आती रहे धूप, बौछार, ख़ुशबू
लम्हे छोटे ही सही पर साथ होने पर
जीवन अपूर्ण ना रहे।
प्रेम को क्यों ही होना इसके जैसा, उसके जैसा
उसे ख़ुद जैसा ही होना चाहिए
अनगढ़, अनहद, अनाम, अपूर्ण