स्व० शमशेर जी के प्रति सादर
कुछ दूर गए शमशेर
और फिर रुक गए
जैसे कह रहे हों --
मुझे एक कहकशाँ कहना है
इस रात के साए से
जैसे कह रहे हों --
कहाँ सीढ़ियाँ उतरने की
ज़हमत उठाए चाँद
मैं अकेला पार कर लूँगा पर्वत
परत-दर-परत
कितना ठोस, कितना स्वच्छ
कितना चमकदार है आसमान
'आसमान में गंगा की रेत
आइने की तरह चमक रही है ।'
क़दम-दर-क़दम
फिर मुखरित है अनन्त में मौन ।