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अनपढ़ी किताबें / विनोद विट्ठल

गुमशुदा की तस्वीरों की तरह सामने खड़ी चुनौती देती हैं 
किसी थीम सॉंग की तरह धीमे और लगातार बजते हुए

वे फुसफुसाती रहती हैं व्यावहारिक गृहिणी की तरह बिना लाउड हुए

याद करती रहती हैं ख़रीदे जाने के क्षण को, जब किसी दुल्हन की तरह आई थीं घर में 
अबोली बैठी विधवा की तरह 
वे बुनती हैं बेआवाज़ इन्तज़ार कि कोई आए, उठाए

वेण्टिलेटर पर लेटे बुज़ुर्ग की तरह उम्मीद से होती हैं :
किसी भी क्षण हो सकता है चमत्कार, झड़ सकती है धूल 
और किसी स्पर्श के साथ वे शुरू कर सकती हैं अपना गाना महफ़िल में

उपेक्षित माँओं की तरह अपने बच्चों के बारें में बात करती होंगी 
ज़मीन में दबी नदी या पेट्रोल की तरह इन्तज़ार करती हैं देखे जाने का

अनपढ़ी किताबें उम्रदराज़ कुँवारी लड़कियाँ होती हैं 
छुअन का जोड़ा उन्हें कभी भी दुल्हन बना सकता है

बेचारी सुन्दर साध्वियाँ !