Last modified on 16 सितम्बर 2019, at 20:19

अनपढ़ / समृद्धि मनचन्दा

उसके पाँव अनपढ़ थे
एक आखर न पढ़ पाते
पर तलवों को राहें
मुँह ज़बानी याद रह जातीं

वो दरवाज़े टटोलता
रट लेता खिड़कियाँ
"काला आखर भैंस बराबर"
उसके पाँवों के लिए कहा गया था

खुरों से अटी पगडण्डियों पे
निकल जाता गोधूलि में
सुनने का बहुत चाव था उसे
सो सड़कों से बतियाता

उसके पाँव जितना चलते
उतना ही भूलते जाते चलना
मानो ’चलना’ क्रिया नहीं
विशेषण हो !

रोम-रोम से छूता सफ़र
ठहरा हुआ भी चलता
सच ! इतना मूढ़मति था
पाँव अनपढ़ थे उसके !