गगन के रक्ताभ रंग में,
डूबते सूरज की किरणें,
पूछती हैं आज मुझसे -
जान पाए क्या कभी तुम,
फर्क है क्या
भोर और संध्या की धुंधली लालिमा में?
और मैं,
अनभिज्ञ, निश्चल, मूक, कातर,
दूर नभ में डूबते,
सूरज की किरणों से,
निकलते प्रश्न चिन्हों की दिशा में,
देखता हूँ, खोजता
अजना अजाना एक उत्तर!
क्षितिज के गहेरे धुंधलके
थम लेते हाथ मेरा,
और ले चलते मुझे,
उस पार अपने!