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अनावरण / अजित सिंह तोमर

देह को होना होगा एक दिन
अनावृत्त
समस्त आवरणों से
जैसे मस्तूल से बंधी नाव
को होना होता है अलग
चलनें के लिए जल की तरलता पर
आलिंगन और स्पर्शों की प्रतिलिपियां
जमा करनी होगी
अपनत्व के संग्रहालय में
जब जिस्म का नही होगा कोई मनोविज्ञान
जब मन का नही होगा कोई दर्शन
तब मिलना होगा कुछ तरह कि
न रहें कुछ भी शेष
न विमर्श को न स्पर्श को
थोड़े से अधीर थोड़े से आश्वस्त होकर
मैं तुम्हारे माथे पर और
तुम मेरी पीठ पर लिखोगी
यही एक सयुंक्त बात
मुक्ति यदि कोई अंतिम चीज़ होती तो
इसे हासिल किया जा सकता था।