अनिद्य री प्रवालिका! अनन्य प्रीत धारिका, अमोघ बोध वाहिका, प्रेम पंथ कांति तू।
सजीव चिंतना प्रिये, अशेष रंजना लिए, नवीन व्यंजना किए, मूर्त काव्य क्रांति तू।
अगम्य भी सुबोध भी, विवेक भी विरोध भी, सु-शिल्प काव्य शोध भी, काव्यिके! प्रशांति तू।
प्रगाथ देह लालिमा, प्रभा पुनीत उत्तमा, लगे विनम्र चंद्रमा, मुक्ति जन्य शांति तू।