दिल्ली
मॉडल टाउन तीन
एक घर
जिस में
शोभा, अजय
इन के बच्चे
भाषा, अनुराग
और ताऊ जी- शमशेर-
हैं ।
मैं भी इस घर में
स्वीकृत हूँ।
सब का स्वीकार
मुझे आभारी करता है ।
मुझे काटता नहीं
मेरा अकेलापन ।
आए
कुछ सम्मानित
सुधी साहित्यकार
चर्चा हुई
आपसी गति-मति
पहचानी गई
बड़े लोग
जब अपनी धुन में
कुछ कह-सुन रहे थे
भाषा, अनुराग
बार-बार आ कर
मन का ताना-बाना
यों ही बुन रहे थे
जब सब चले गए
भाषा ने आ कर
मुझ से पूछा-
वह
जो उधर बैठे थे
उन का पेट
कोट से बाहर क्यों
निकल आया करता था
मुश्किल सवाल था
जवाब क्या दिया जाए
सूझ काम दे गई
कहा मैं ने-
भाषा वे सुखी हैं
जो सुखी होते हैं
उन का पेट
बाहर को होता है ।
भाषा ने शंका की-
आप का पेट तो वैसा नहीं ।
मैं ने कहा-
मैं सुखी नहीं हूँ ।
भाषा ने कहा-
और वह, जो उधर बैठे थे
छोटे से
वह इतने छोटे क्यों
अब कोई क्या कहे
कुछ कहना ही होगा
फिर बोला-
छोटे दरवाज़ों से बड़े लोग
अकसर टकरा कर
सर पकड़ बैठ जाते हैं
बड़ों की ऐसी दुर्गति
उन्होंने कई बार
देखी थी,
जब वे बहुत छोटे थे । तभी उन्होंने सोचा
मैं बड़ा नहीं हूँगा
छोटा ही रहूँगा
बड़ा हो जाने में
बड़े-बड़े संकट हैं
इसी लिए छोटे हैं
भाषा ने क्या समझा
कह नहीं सकता
जब वह चली गई
मैं ने सोचा
जो कुछ मैं ने कहा
क्या वह जवाब है
भले वह जवाब न हो
अनुकथन तो है ही
यह भी कुछ कम नहीं ।
रचनाकाल : 21-02-1978, दिल्ली