अनुगामिनी क्यों हो जाती हैं स्त्रियाँ,
जब भी साथ कोई पुरुष होता है
दसियों बार गुज़रकर भी रास्ते पहचाने नहीं होते
गांधारी बनकर बाँध लेती हैं पट्टियाँ
आँखों पर, मन पर भी
नहीं देख पाती अपनी इच्छा - अनिच्छा
निर्णयों को आकार नहीं दे पाती हैं
छोड़ आती हैं घर के किसी कोने में
किसी फूलदान, किसी शो केश में छिपाकर
जो भी पायी हैं उन्होंने शिक्षा
उनके सुकोमल मन को हमेशा
स्तंभों की आवश्यकता होती है
आंसू भी सगे नहीं रह जाते
सगे-सम्बंधियों के दुःख पर ही छलकते हैं
बस हृदय में एक टीस-सी रहती है ताउम्र
और दर्द भी हो जाता है, स्त्रियों की तरह नम्र
कोई शोर कभी होता नहीं,
यद्यपि ताउम्र अंतर्द्वन्द्व में
चलती रहती है
साथ-साथ सतत ही यह यामिनी
स्त्री-अनुग़ामिनी!