सुबह हुई तो,
सूरज फीका-फीका निकला ।
वातायन की हवा नहीं गाती थी गीत ।
सजे हुए गुलदानों के रक्तिम गुलाब,
क्या जाने क्यों पड़ते जाते थे,
प्रतिक्षण पीत ।
बाहर बिखरा,
क्षितिज शून्य मुझसे निस्पृह था ।
आकर्षण भी नहीं, न था कुछ आमन्त्रण ।
चित्र-लिखी-सी सज्जा दीवारों-पर्दों की,
आप लौट आती आवाज़,
कैसा प्रण ।
साँझ घिरी तो,
लगा अचानक अब अन्धियारी,
चिर अभेद्य होकर यहाँ ही मण्डराएगी ।
भूले-भटके एक किरण भी नहीं यहाँ
ज्योतिर्मय काँचन तन से भू
छू जाएगी ।
दीप जला, पर
उसका भी प्रकाश मटमैला
लौ की दीप्ति क्षीण होती जाती छिन-छिन ।
निर्बल होते मन पर सहसा याद घिरी —
’केवल एक तुम्हीं इस गृह में नहीं,
आज के दिन ।’