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अनेक संसार / दिनेश कुमार शुक्ल

एक दूसरे से होकर
एक दूसरे के आरपार
एक दूसरे को बिना छुपे
फैले हैं
इतनी सी जगह में
अनेक संसार

घुसी है उपस्थिति में
उपस्थिति,
पारदर्शिता में पारदर्शिता-
एम दूसरे को अगोचर

अभी इसी वक्त
बिना हमको छुए
क्या कुछ
घटित हो रहा होगा
दूसरे संसारों में
हमारे ही आसपास

संभव है
जहाँ आप बैठे हैं
वहाँ किसी दूसरे संसार में
खिला हो कोई विचित्र फूल,
तीसरे संसार में
संभव है उसी जगह
तैर रहा हो कोई जल जीव,
चौथे में उसी जगह
टिमटिमाता हो कोई दीपक
या
जन्म ले रही हो कोई नई पृथ्वी

या वही चीज
अलग-अलग लोकों में
प्रकट होती हो
अलग-अलग रूपों में एक साथ
संभव है

संभव है
हमारी अनुभूति की सीमायें
आने वाले वक्तों में
और फैल जायें

फिलहाल
बहुत होगा इतना ही
यदि हम बटा सकें सुख-दुख
अपने इस छोटे से
गोचर संसार के,
अगर हम
सीझ सकें पोर-पोर
अपनी अनुभूति की
दुनिया के जादू में