यह कृषि कितनों की अन्नदा प्राण-दात्री,
अहह घन! तुम्हारी है रही प्रेम-पात्री।
जलधर, तुमने ही तो इसे था बढाया,
फिर उपल गिरा के क्यों स्वयं ही मिटाया।
यह कृषि कितनों की अन्नदा प्राण-दात्री,
अहह घन! तुम्हारी है रही प्रेम-पात्री।
जलधर, तुमने ही तो इसे था बढाया,
फिर उपल गिरा के क्यों स्वयं ही मिटाया।