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अन्तराल का मौन / जगदीश गुप्त

कवि की वाणी
कभी मौन नहीं रहती
भीतर-ही-भीतर शब्दमय
सृजन करती है
भले ही वह सुनाई न दे
लौकिक कानों में
वह अलौकिक स्वर ।

रचनाएँ उसी की छायाएँ हैं
रंग-रेखाएँ उसी की ज्योति से
निरन्तर उपजी हैं
फिर भी मनुष्य अपने को
निरीह समझता है ।

भरे-पूरे संसार में
अकारण दुःखी रहता है
खो जाता है जहाँ भी सन्तुलन
पैर डगमगाने लगते हैं
पँख होते हुए भी
उड़ नहीं पाता ।

(अपनी मृत्यु से डेढ़ महीने पहले 01 अप्रैल 2001 को रचित)