जो मुख कल अमल कमल - सा
सम्मुख रहता था मेरे ,
जिसके मादक स्मृति - क्षण
इस जीवन को हैं घेरे; ।।६।।
रोऊँ, तड़पूँ मैं उसको
मेरी परवाह नहीं है ,
लग गयी आग इस तन में
जलती - सी निखिल मही है ।।७।।
यह सृष्टि जल रही नीचे
ऊपर अम्बर जलता है,
यह हृदय जल रहा भीतर
बाहर यौवन ढलता है ।।८।।
भीतर-बाहर ज्वाला है
ज्वाला में घूम रहा हूँ,
बेसुध उर से मैं उसकी
स्मृति को चूम रहा हूँ ।।९।।
वह समय रहा स्मृति का,
यह समय रहा रोने का ;
संसृति की अमिट व्यथा में
रो रो जीवन खोने का ।।१०।।