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अन्तिम कविता / अरुण देव

गुलेल से फेंकी गईं कठोरताएँ
क्रूरताओं की बारिश में लौट रहीं हैं
 
कामनाओं के पहाड़ हैं पीठ पर लदे
यात्रा की थकान से टूट गए हैं कन्धे
निरर्थकताओं से भर गई है जिह्वा
कहीं भी कोई हरा पत्ता नहीं
कोई कीट नहीं परागण के लिए
 
संशय नहीं
निश्चितताओं की ईंटों से चुनी चहारदीवारी की तयशुदा ज़िन्दगी का
अब यह आख़िरी पहर
 
ओ ! नाव
जर्जर ही सही रेत में धँसी
सभ्यता के किसी और अर्थ की ओर ले चलो
 
तुमसे ही शुरू हुई थी यह यात्रा
अनिश्चित और उम्मीद से भरी
 
प्रलय की आग में झुलस गया है वृत्त
 
पृथ्वी से बाहर
उसके आकर्षण से परे
आकाशगंगा में
 
ले चलो कहीं ।