पहले की ही तरह
घोंघे की पीठ पर सवार हो शरद आया तो?
घासों में है नीली-गुनगुनाहट
दिगन्त के तिरछे होंठों ने
क्या रंग की आग लगाई है?
आसमान में मैदानों के पार
धूप का सुनहला शहद झरता है?
मेरा हृदय भादो की भरी नदी नहीं बन सका हाय!
पुरातन मन आज नहीं हो सका अश्विन का बादल:
आसमान का चॉँद उगता है दूसरे की रोशनी में --
हृदय-समुद्र में नहीं उठाता लहरें, पैदा नहीं करता आवेग।
मेरी टहनियों पर अगर जीवन की कलियाँ न ही लगें --
टहनियाँ अगर सिर्फ़ साँय-साँय करें,
तो फिर और क्यों? कितनी दूर
किस जंगल में लकड़ी काटते हो काल के लकड़हारे,
तुम ले आओ धारदार कुल्हाड़ी
मेरे पेड़ की अन्तिम छाया काट लो इस बार !
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी