समाहित तरलता लिए हुए
रुकता नहीं हठ में
पानी की तरह
आजू-बाजू के
पत्थरों से पिसकर
बोलती-बहती धार हो जाता हूँ
तारों की टिमकती हठ को
कोई रात
रोक नहीं पाती है
गति का गरिमामय सार
अपने उजागर होने के
प्रकाश में
किनारे पर
अपनी परछाईं में
बँधे हुए लोगों से
कहता हूँ
अन्तिम नमस्कार ।