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अन्तिम मोर / दिनेश कुमार शुक्ल

जब वह चले तो सामने लम्बा चौड़ा मैदान था पसरा हुआ
चलते-चलते उन्हें लगा
वह मैदान उन्हीं के भीतर फैला हुआ है
और वह जाने कैसे घुस गये हैं अपने ही
आभ्यन्तर के विस्तार में

ऐसा विस्तार था कि
शब्दों का बाहुल्य एक मजबूरी थी
प्रलाप को रोकना जैसे कठिन होता है
वैसे ही प्रलाप की तरह
फैलता चला जा रहा था वह मैदान-
टूटे हुए काँच, और ज़ंग लगे कँटीले तारों
का अन्तहीन सिलसिला,
बचे खुचे पेड़ों के तनों के गूदे में भी
पैबस्त होकर बैठी थी लोहे की बाड़
जैसे जाँघ में चाकू का घुसे रहना
एक स्वाभाविक स्थिति हो
जैसे आत्मा में जम जाना कलुष का एक आम बात हो

मीलों-मीलों तक फैले चीथड़े और प्लास्टिक
के टूटे कनस्तरों की फसल के ऊपर
टँगी हुई रासायनिक हवा में
अभी-अभी सुनाई दी
दूर से आती मोर की कुहाँ-कुहाँ
क्या कहीं दिखे हैं अभी बादल किसी को
क्या सूँघा तुमने
कहीं से आया हुआ सोंधी माटी का एक झोंका
उधर जलाए जा रहे कूड़े के ढेर से
उठते हुए धुएँ को तो बादल नहीं समझ लिया
उस अकेले अन्तिम बचे मोर ने
वह अन्तिम अकेला बचा मोर
उसे कौन सिखाएगा मोर होना
वह भूल चला है कि वह मोर है
वह समझता है खुद को
विज्ञापन के रंगों में रंगी हुई चिड़िया,
क्या विलुप्त होती प्रजातियों की ऐसी ही होती है अन्त-कथा

तुम्हारे डिनर सूट का टूटा हुआ बटन भी
दिखा मुझे कूड़े में छिपता हुआ
गुबरैले-सा रेंगता लुढ़काता चला जाता पृथ्वी को
और हाँ तुम्हारी वह मुस्कान भी झलकी जरा-सी
जो तुमने नकल करके बड़े जतन से सीखी थी
मैनेजमेंट के स्कूल में-
आसपास के माहौल में पूरी तरह एकरस
वह मुस्कान तेल के धब्बे की तरह
फैलती चली जा रही थी सारे अस्तित्व पर

किस कदर आजादी थी वहाँ!
वहाँ सब कुछ मिल सकता था,
कोई भी देखा जा सकता था
मोलभाव करता उस कूड़े के अनन्त मैदान में,
लगभग सारी किताबें, पन्ने तितर-बितर,
उड़ रही थीं वहाँ कीचड़ में लिथड़ी
कला, कविता, दर्शन, विज्ञान,
राजनीति, अर्थशास्त्र, सारी प्रज्ञाएँ
उड़ रही थीं जैसे उड़ते हैं
हलाल की गयी मुरगियों के पंख,
जैसे किसी वंचित प्रेमी ने
फाड़ कर फेंक दिये हों सारे संसार के प्रेमपत्र

क्या यह पण्य का मुक्त विस्तार था
क्या यह प्रेम की वध्यस्थली थी
क्या यह थी विचार के अन्त के सन्निपात की उपत्यका
क्या यह मैदान फैलता चला आ रहा था
सभी के आभ्यन्तर में...।