Last modified on 8 नवम्बर 2009, at 18:34

अन्त के बाद-1 / अशोक वाजपेयी

अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।

फिर झगड़ेंगे,
फिर खोजेंगे,
फिर सीमा लाँघेंगे

क्षिति जल पावक
गगन समीर से
फिर कहेंगे-
चलो
हमको रूप दो,
आकर दो !

वही जो पहले था
वही-
जिसके बारे में
अन्त को भ्रम है
कि उसने सदा के लिए मिटा दिया।

अन्त के बाद
हम समाप्त नहीं होंगे-
यहीं जीवन के आसपास
मँडरायेंगे-
यहीं खिलेंगे गन्ध बनकर,
बहेंगे हवा बनकर,
छायेंगे स्मृति बनकर।

अन्तत:
हम अन्त को बरकाकर
फिर यहीं आयेंगे-
अन्त के बाद
हम चुपचाप नहीं बैठेंगे।