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अन्नदाता की त्रासदी / शीला तिवारी

अकाल की कराल त्रासदी
कृषकों को घाल रहे
हताश-निराश जिंदगी से
'ख़ुदकुशी' के सिलसिले हमें डरा रहे
धरा तड़प-दहक रही, दरारों से पटी है
खेत-खलिहान फसल बिना सुनी पड़ी है
पशुओं की गले की घंटी नहीं बज रहे
पक्षी के कलरव हमसे विलग हुए
भूख से बिलख रहा बचपन बेहाल है
शिक्षा छोड़, नन्हे हाथ को काम की तलाश है
औरों के जीवन को गति देने वाला कृषक
खुद अपनी सांसो की डोर ही तोड़ रहा।
धूप, हवा, बारिशों से तपा हुआ व्रज कृषक तन
हाय! 'मन की पीड़ा' से क्यों हार रहा
जीवन समर्पित था खेत, हल, पशु में
हर खुशी अर्पित था हरे- भरे फसल में
आज खुद भूखा, प्यासा लाचार है
शहर पलायन कर रहा काम की तलाश में
हताशा हो, निराशा हो, भाग्य को कोस रहा
कर्ज़ तले दबा जीवन नीलाम है
दलालो, सूदखोरों के नोच-खसोट आम है
अफसरों, नेताओं में मची लूट घमासान है
हम आधुनिकता के आलोढ़न के गीत गा रहे
कृषक हमारे दारुण विकट जीवन जी रहे
इनकी लाशें हमारी व्यवस्था पर अट्टहास है
समाज पर कठोर प्रहार है
विकास की पोल खोलती
क्यों 'ख़ुदकुशी' की राह चल पड़ा किसान
प्रश्न है समाज पर.......
सवाल पर सवाल है???