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अन्न हरकारे हैं / नरेश चंद्रकर

इस बार गेहूँ फटकारते वक़्त
कुछ अजीब आवाज़ें उठीं
धान के सूखे कण चुनना
ख़ून के सूखे थक्के बीनने जैसा था
आटे चक्की में सुनाई दी रगड़ती हुई सूनीं साँसें
ठीक नहीं थे इस बार गेहूँ बाज़ार में
मन उचाट रहा उनका मलिन स्वर सुनकर
वह किसान अत्महत्याओं का प्रभाव था
हाथ से छूट जाते थे अन्नकण
उदास बना हुआ था उनका गेंहुआ रंग
अन्न हरकारे हैं
ख़बर पहुँचाते हैं हम तक
अपने अंदाज़ मे!