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अन्ह / कुमार वीरेन्द्र

वह पहले भी आती होगी कि नदी
पहले भी थी

गढ़ती होगी, लेकिन
ध्यान उस दिन गया, जब वह घास की गठरी
गोद में रखे, लरक-ढरक रही थी, किनारे, किनारों की तरह, तभी तो, तीव्र वेग थी पुरवइया
तब भी आ न रही थी आवाज़, बस जब पोंछती आँचर से लोर, लगता रो रही है और जाने
क्या, चुप भी नहीं हो रही, मैं जो रोज़ खन्ता की नारी में पहुँच जाता, जहाँ
जँगली बेर के पेड़ ही पेड़, एक पेड़ पर बैठ तोड़ रहा था
बेर, देख रहा था उसे, वह गठरी पकड़े
ऐसे ढरक रही थी, लगता
माई रो रही

वह भी जब कोई ओरहन-बेओरहन
मुझे मारता

किसी से कितना
कहती, गोद में बैठा साथ भीगने लगती
चुप मैं ही पहले होता, और उसका लोर पोंछते कहता, 'अब चुप हो जा...', लेकिन उससे इहाँ
कौन कहे, गोद में है भी तो घास की गठरी, मैं कितना भी, बाँस की छिउँकी से, बेर तोड़ने की
जुगत भिड़ाता, नज़र चली ही जाती, क्यों तो पेड़ से उतर, भीरी चला गया
और पाछे खड़ा रहा, 'तुम काहे रो रही हो, का हो गया है
बोलो...', सुनते ही वह अकबका-सी गई
लेकिन पोंछते लोर, 'कुछुओ
ना, बाबू' कह

खुरपी-गठरी उठा चल पड़ी, राह सँग
फिर, तिरछे

उसे जाते देखता रहा
और सोचता रहा, 'रो काहे रही थी ?', दूसरे दिन तनि
देर से चहुँपा, खन्ता की नारी में, और जैसा कि बिन चढ़े पेड़, कहाँ मन भरनेवाला बेर से, चढ़के अभी
बैठा ही था, देखा, जहाँ नदी किनारे भुराड़, जिसका जल ही बधार में जान, दु घूँट पी, गठरी उठा, दूर
आर पर बैठ गई, चारों तरफ़ ताकने लगी, फिर आँचर में कवन तो मन्तर पढ़ने लगी
पढ़ लिया, हाथ से बार-बार भुइँँया छू रही, छूते ऐसे देखे जा रही
जैसे हहर रही हो, फिर वही, गोद में गठरी ले
ढरकने लगी, मैं फेर के फेर में
कवन है, का बात

जो डहकती है रोज़, गोद में गठरी पकड़े
बताती नहीं

तबहुँ चला ही गया
और वह फिर 'कुछुओ ना, बाबू' कह, जाने लगी
जाने लगी तो पाछे हो लिया, 'बताओ न, का दुःख है, हमार आजी गोइँठा बेचती है, पइसा चाहिए ?'
वह मुड़ के जब देखने लगी, लगा साँचो अपनी माई ही देख रही, 'कुछुओ ना, बाबू, जा घरे जा' उचर
सर पे हाथ फेर, जाने लगी, उसे जाते दूर तक देखता रहा, जादा कर भी क्या
सकता था, मेरे गाँव की थोड़े जवार की थी, सोचा आजी से
कहूँगा, वही बताएगी, ना बताएगी तो लेके
आऊँगा, टालेगी नहीं मेरी बात
कहती भी तो है

'दुःख से अइसी भवधी, बेटा, लगें सगे
सब सगे...'

सँकट, कि आजी को
अइसन जाड़-बुखार, पूछते का, ले आते कइसे
तो भी आना तो था ही, बेर का चस्का जो, लेकिन अगले दिन, बेर के लिए नहीं, ई सोच के आया
अबकी पूछ के रहूँगा, लेकिन जहाँ किनारे दो दिनों से देख रहा था, वहाँ दिखी नहीं, दिखी भी तो
छोर पे बनकट में, गँवे उतर चल पड़ा, इस बार जेब में बेर भी थे, पता नहीं क्यों
खा नहीं पा रहा था, सोचा उसे दे दूँगा, लेकिन कुछ क़दम दूर
ही था, देखा, अबहीं कवनो मन्तर नाहीं पढ़
रही, दूध गार रही, और इस बार
जितना गार रही

उतना ही ढरक रही, सूख रहा गारा हुआ
दुख रही वह

सन्न रह गया, कि ऐसा
करते अपनी माई को भी देखा था जब बबिया मू गई
थी, घर के कोने में बैठ, गारती, भीगती रहती, पूछता, कुछुओ ना बोलती, आजी ने बताया, 'छाती
चुराए, कवन नवजात को मुँह धरावे, बुझावे आपन पीर, बेटा...', मैं काठ बना खड़ा रहा, और उसे
नहीं जैसे साक्षात् माई को देखता रहा, कहते बन रहा था न देखते, लौटने लगा
फिर क्या तो हुआ, मुड़कर देखा, वह कुछ दूर चली गई थी
दौड़ते गया, 'सुनो', रुक गई, 'रोज इहँवा
का करने चले आते हो, डर
नाहीं लगता ?

बाबू, मुरघटिया है न इहाँ, बउराह
हो का...'

'देखो, ई बइर
ले लो, रोजहीं घरे ले जाता हूँ, चाची
खाती है, दीदी, फुआ, आजी भी, ले लो', और बगली से निकाल, सब उसकी अँजुरी में
रख दिया, देख रहा था, वह बस देखे जा रही, इस तरह थिर, माथे गठरी हिल न पा रही
उसकी आँखों में कुछ वैसा ही था, जैसा माई की आँखों में कभी-कभी
पता नहीं काहे, उससे दूर जाते, बेरी-बेरी इहे कहे
जा रहा था, 'हमरी माई कहती है, ई
जो बइरवा है, ई बहुते
मीठ, साँचो

ई त मीठे-मीठ, बहुते मीठ...!'