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अपना ही तमाशबीन-1 / दिनेश जुगरान

उसके अब
आँसू नहीं निकलते
और न ही
दिखता है
चेहरा उदास
इसका अर्थ यह नहीं
कि यंत्रणा और आग
उसकी हो गई है समाप्त
भविष्य का भय
लावारिस घड़ी की तरह
अटका हुआ है

अपनी संवेदनाओं
को ढक लिया है
बड़ी खूबसूरती से उसने
अहंकार से
और आँच न आए
उसके आँसुओं में
इसलिए वह अन्दर-ही अन्दर तपता है
हर्ष और विषाद में
पहले जैसा विरोध
न फासला
नज़र आता है
अभाव और उपलब्धि
दोनों पर बराबर की हँसी आती है
और देर रात तक
दर्द रिसता है आँखों से

अपने से भय
और दूसरों की तटस्थता
अभ्यस्त है
दोनों ही
स्थितियों में वह

कोई भी आवाज़ देकर बुलाओ उसे
फ़र्क़ नहीं पड़ता उस पर
जब कभी रहता है पूरे होशो-हवास में
बन जाता है
वह अपना ही तमाशबीन