Last modified on 27 जून 2010, at 16:20

अपनी कविता / रमेश कौशिक

भाग्यवान थे
वे कवि
जिनकी कविता
कागज़ की तलवार से
मैदान साफ़ करती थी
या जिनकी धनुष या वंशी के बीच
मोक्ष प्राप्त करती थी
या जिनकी सुरा और सुन्दरी के
बाहुपाश में थी
या जिनकी बादल के खटोले
या नदिया के बिछोने पर
सोती थी

अपनी कविता तो
कभी भीतर
कभी बाहर
जूझते-जूझते बूढ़ी हो गयी है
लेकिन समीक्षक कहता है
कि नयी हो गयी है