Last modified on 1 मार्च 2010, at 00:05

अपनी महरी के लिये / हिमांशु पाण्डेय

 
मुझे मालूम है
कि रोज घिसते हुए
मेरे घर के बर्तन
तुम घिसना चाहते हो
अपने अतीत का कोई टुकड़ा
जो, इन बर्तनों की तरह
खुद में ही किसी की मिटी हुई
भूख का अनुभव करता हुआ
जूठा पड़ा रहता है ।

मुझे मालूम है
कि रोज यह बर्तन घिसना
घिस कर चमकाना
और फ़िर तैयार कर देना उसे
किसी भूखे के सम्मुख परसने के लिये
तुम्हारा कार्य व्यापार नहीं है
बल्कि, अतीत के स्मृति-चिह्नों से
निर्मित हो गया
तुम्हारा स्वभाव है ।

तुम हर बार किसी भूखे की
भोजन-सामग्री के वाहक बने,
अपने अस्तित्व पर उसकी
क्रूर तृप्ति के चिह्न समेटे,
जूठे होकर बार-बार चमक उठे हो,
बार-बार उपयोग में आने के लिये
अपना अतीत भूल जाने के लिये ।