इस जेठ की लू-गरमी में
जहाँ भीड़ का रेला बह रहा है-
अपनी रेहड़ी के सहारे खड़ा
तू अपने छबड़ों की सब्जियों पर, सूरज के ताप में,
टाट चढ़ाता, बार-बार पानी छिड़कता
बदहवास ग्राहकों को बुलाता रह गया
खड़ा का खड़ा रह गया।
भिंडियों को ‘लैला की नरम उँगलियाँ’,
ककड़़ी को ‘लैला की नाजुक पसलियाँ’,
-लच्छेदार आवाजों पुकारों में कह-कह कर
करने वालों ने पैसे खड़े कर लिये!
तेरी सजाऊ सब्जियाँ अधबिकी ही रह गईं।
अपने-अपने ठिये-एक्सप्रेस से
और सब बना कर ले गये नावाँ-
तेरी पैसेंजर खड़ी ही रह गई गुड़गाँवाँ।
वाह रे वाह, अच्छा लाया तू अपना माल-
टिामिनों वाला-सीधे खेत से!
1985