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अपने अरण्य में / कर्णसिंह चौहान


मैं पुन: लौट जाऊंगा
अपने अरण्य में

क्या है इन नगरों में?
गदराई देह
लपलपाती लालसा
पतंगे सा जलता तन-मन
शायद अभी शेष हों
वे मंत्रोच्चार
आत्म के सरोकार
मानवीय आदर्श
क्या मिला व्यर्थ की कवायद में?
एक ही धर्म से ओत-प्रोत
ये खेमे
अंदर से खूंखार
मनुष्य का
करते रात दिन शिकार

कहीं नहीं जाते ये रास्ते
बस भरमाते हैं
रोज़ कुछ और
हैवान बनाते हैं
कितनी सदियों बाद
वहीं खड़े हैं हम
अब कहाँ जाएं?
यही पूछने
मैं पुन: लौट जाऊंगा
अपने अरण्य में