न होने का दुख भी
सालता हमें उतना ही
जितना होने का
इस दुख से लड़ते-लड़ते
जीवन बन जाता
एक अबूझ यात्रा
हर चौराहे पर खड़े होकर
पूछते हम
यह रास्ता किधर जाता है
अपने ही किसी हमशक्ल से
पेड़-पौधे से
पत्थर पर से लुढ़कने को तैयार
पानी की बूँद से
अभी-अभी उदित
सितारे से
अपने दुख को कहने के लिए
चुनते जब-जब हम
किसी दूसरी दुनिया के आदमी को
उसका आर्त्तनाद
हमें बना देता गूंगा
किताबों में से झाँकता
पत्थर-समय
करता हमारे अंधेरे को
कुछ और गहन
भिखारी से माँगते
भीख
हम
अपने ही बियाबान में
एक चीख।