विदेश-प्रवास में
तपन और पाले में
एकाकी पड़ा है मेरे मन का चबूतरा
जैसे हवा में
किसी स्मृति-घाव का
गीला निशान।
इच्छाओं के नाव-घर से
ढूँढ़ती हैं बूढ़ी आँखें
बीते कल
उजले अतीत।
प्रिय की स्मृति में
अपनी ही अंजुलि में
अपना चेहरा टिकाए
कि मेरी हथेलियाँ
उसकी ही हथेली हो
बैठी हैं
स्वदेशी इच्छाएँ
आत्मसुख के लिए।