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अपमान / हरे प्रकाश उपाध्याय

अपमान
यह महज तुम्हारा अपमान नहीं था बन्धु
यह विनम्रता और आधुनिकता का पर्याय बदल देने वाला हमला था
जिसकी चपेट में एक पूरी परम्परा थी

वे चाहते थे
कि वे कहें तो आप हँसे
कहें तो गाएँ
कहें तो आदमी बनें
भले और वख़्त में जानवर बन जाएँ

उन्हें चीज़ों के रोशन होने से खास मतलब नहीं था
उन्हें उतनी ही रोशनी चाहिए थी
जिसमें उनके चेहरे रोशन हों
भले वे नारे समुची दुनिया के पक्ष में लगा रहे थे

म्गर एक सामान्य कवि की
इतनी सी स्वाधीनता से वे आहत हो गये थे
कि उनके कहने पर उसने कविता नहीं पढ़ी थी

वे न जाने नयी दुनिया का कौन सा स्वप्न देख रहे थे
जाने उसमें तानाशाह अगर होता
तो उसकी पहचान जाने क्या होती
 यह महज़ तुम्हारा अपमान नहीं था बन्धु
यह उनके टुच्चेपन का पर्दाफाश भी था।