जगद्गुरु शंकराचार्य विरचित
काव्यानुवाद दोहा छंद में
(सम्पूर्ण अनुवादित ग्रन्थ से केवल कुछ अंश)
मंगलाचरण
व्यापक श्री हरि! आत्म-भू , सकल विश्व को मूल।
परमानंद स्वरुप को, वंदन मूल समूल॥
ग्रन्थ का प्रयोजन
लेकर ब्रह्मा बृहत से, स्थावर पर्यंत।
काग बीट सम विरत वृति, वे ही विरत महंत॥
'शम' कहलाता सर्वदा, सकल वासना त्याग।
'दम' कहलाता रोकना, बाह्य वृत्ति का राग॥
शास्त्र और आचार्य के, कथित तथ्य श्रद्धेय।
सतत चित्त एकाग्रता , समाधान शुभ ध्येय॥
ज्ञानोपदेश
द्वैत भाव अज्ञान मय , दुविधामय दुइ रूप।
जब अद्वैत्मय ज्ञान हो, आत्मरूप सब रूप॥
सकल विश्व अब आत्म मय , को आपुनि को और।
अब अनन्य, संसार कत, शोक, मोह को ठौर॥
प्रपंच का मिथ्यात्व
जस भासत संसार सत, जदपि मूल सत हीन।
अगले पल मिट जात जस, स्वप्न असत रस हीन॥
जागत ही सपना गया, स्वप्न ना जागत कोय।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति में, रहत ना संग-संग दोय॥
जस घट माटी रूप है, तस तन चेतन रूप।
अज्ञानी जन व्यर्थ ही , विघटित करत सरूप॥
कौन मूल कारण जगत, उपादान मैं कौन?
सकल नियामक शक्तियां , करनहार है कौन?
जस घटादि में मृत्तिका , कारण रूप सदैव।
ब्रह्म सदा सर्वत्र तस, विद्यमान एकमेव॥