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अप्रतिहत / महेन्द्र भटनागर

मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूँगा
आज जीवन में हुआ असफल भले ही !

एक पल को साधना की भावना सोयी नहीं,
और जाऊँ हार, ऐसी बात भी कोई नहीं,

मैं नहीं सुनसान राहों पर थकूँगा
दूर, बेहद दूर हो मंज़िल भले ही !

आज छाया है अमावस-सा अँधेरा सब तरफ़,
पर, अभी कल मुसकराएगा सबेरा सब तरफ़,

मैं न मन की पंगु दुविधा में रुकूँगा
पास में चाहे न हो संबल भले ही !