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अबके मिलेंगे / निधि सक्सेना

अबके मिलेंगे
उस छोटे से रेस्तरां में
जिसकी रौशनी आँखो को चुभती न हो
जहाँ न इतना अंधेरा हो
कि चेहरे के भाव छिप जायें
न इतना उजाला
कि आँखो की नमी ज़ाहिर हो

इस बार लाना कुछ आसमाँ के टुकड़े
चाँदनी की महक
साँझ के रंग..
चाय संग सुनाना कई सारे लतीफी क़िस्से
कहकहे यूँ गूंजें
कि हम दोहरे हो जायें
आँखे आँसू से भर उठें
कि हर भाव के आँसू एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जायें
ग़म खुशी इंतज़ार बेबसी बेसब्री
इन सबके मेल से
जाने कौन सा रंग उतरता होगा आँखो में ??

अलविदा कहते वक्त
जब पसर जाए बेचैन सा मौन
उसे हम मूक ही रहने देंगे
कि उलझे सवाल
और बेमानी जवाब
अक्सर रतजगों की वज़ह हो जाते हैं.