Last modified on 14 सितम्बर 2018, at 16:07

अबे कमीने / दिनेश देवघरिया

अबे कमीने!
क्या तुझे कभी मेरी याद नहीं आती।
मेरी छोड़
क्या वो गली,गांव सब भूल गया है।
ऐ! सुन ना
अपना गांव भी कुछ-कुछ बदल गया है।
टूट गई है,अपनी वह पाठशाला
जहां हम अपनी
बोरी लेकर जाया करते थे।
रास्ते के बगीचे से चुराये अमरूद
बांटकर खाया करते थे।
याद है,वो साइकिल की दुकान
जिससे साइकिल भाड़े पर लिया करते थे।
और
दस मिनट ज्यादा चलाकर
उससे रोज लड़ा करते थे।
आज भी वह इमली का पेड़ वहीं है।
पत्तियाँ रोती हैं
पत्थर मारने के लिए तु जो नहीं है।
न वो खेल हैं,न खिलौने हैं
और ना वह मैदान है।
पर तु आ ना यार
अपनी यादें हैं और आसमान है।
याद है,वह गुमटी
जिसके पीछे छुपकर हम सिगरेट
पीते थे।
और कोई देख न ले
कितना डरते थे।
अरे! आ न चलेंगे
उसकी गली में,
जो छत से तुझे रोज देखा करती थी।
सच कहूं -
तुझे बहुत प्यार करती थी।
आजा ना यार!
दशहरे का मेला है।
पर तेरे बिन
मन बिल्कुल अकेला है।
अब आ भी जा
तुझे बहुत किस्से सुनाने हैं।
तेरे बीस रुपये भी तो
लौटाने हैं।
अब आ भी जा मेरे यार
तुझे बुलाते हैं
ये झूले,ये मेले,
ये चाट,ये ठेले
ये गर्म समोसे
चाय के प्याले
सब भूल गया साले।
माना तु बहुत बड़ा हो गया है,
बड़े लोगों की भीड़ में
कहीं खो गया है।
पर क्या कभी अपनों की याद की टीस
नहीं सताती।
अबे कमीने!
क्या तुझे कभी हमारी याद नहीं आती।