कितना गूंजते हैं न शब्द
प्रतिध्वनियां चुप क्यों नहीं होती
रात भी कितना जलाती है
कोयला दिन
अवाक् मन
तथ्य तर्क से परे भावना
नहीं ढूंढ पाती कोई अर्थ
अनुगूंजों का
थरथराती प्राचीरें अंतर्मन की
धूसर रंग पहनती हैं
नहीं पहुंचती कानों तक
होठों की कंपकंपी
नि:शब्द तलाशे जाते हैं
अबोले शब्द